एक दौऱ था सब खूब था क्यों की ज़िंदगी ने किया ही कुछ इस कदर जो शायद कुदरत को मंजूर था,पंहुचा दिया एक चंचल बचपन को कठनाईयों के रेगिस्तान में,जहां चाय थी दीवारों की जो अपने घर की याद दिलाती थी इसीलिए शायद मुँह पे चुपी छायी रहती जाती थी.
दीवारें ही बस एक सच्ची साथी थी,क्यों की इस तपस्या से ही मिलनी मेरे जीवन को दिशा थी,मैं जवान था जिसको भेजा ही मिशन की कामयाबी के लिए था, वरना पुणे में हमारी कोनसी दीवानी थी पर ज़िंदगी रगीन बनानी थी, युतो ज़िंदगी ने कआ काइ से मूढ़ दिखाए हर दिन नए चहरे और खूब से मिज़ाज़ सामने आये ,पढाई तो बस एक रूप थी उस तपस्या का पर असलियत में तो हालात ही साही शिक्षां थे,वक़्त वक़्त पे खुद को अग्गह करते हुए समय निकल गया ,हरयलई के नज़रो में दिनों के फुवरो में और मौसम के नकरिले
मिज़ाज़ ने हई समय को एक कढ़ी की तरह कुदरत से जोड़े रखा , बचपना छोड़ खुद से रूहबरू होने का वो समय मिला जो शायद मेरे ज़िंदगी को एक नया मूढ़ ही दिखा गया और एक चंचल बचपन को दुनिया के रंग रूप और कढ वे सच से महरूम करवा गया.
अब मंज़र करीब था और ये ही मेरा नसीब था खूब से अछि आत्माओं से मिलने के मौका मिला समझ में आया वो फरक जिसको समझने में जीवन लग जाता ह शरीर और आत्मा में जो फेर बदल हुआ वो शायद मुकम्मल नज़र आता है. खुद को सभल ना था और अपनी कमज़ोरियों
को अपनी ताक़त बन था ,युही तो खुद का आत्म विश्वास
जगना था . उन वादियों में अलग ही एक भाव था कभी लोनावला की सड़कों को नापना तो कभी कार ही हमारा बार था ,
ज़िंदगी खूब निराली थी और पुणे में हेर ओर हरयाली थी …गुमसुम तो बस मैं ही था जो अपने विचलित
मन को सभल ने में लाग था , देख रहा था टोल रहा था इंसान को ओर उसकी समझदारी को ,कई दुनिया के झूट ओर सच से सामना हो गया इस दूरं ,भलीभांति
जान ने लगा जीवन की कुछ परिभशए पर इंसान का ज्ञान कभी ना खत्म होने वाला बाण है जो युही कुछ नया लात और ज़िंदगी में कुछ अजूबे दिखता ही रहेगा ,ये ही ह कुदरत का मेला इसलिए कहते ह हेर शाम के बाद ह सवेरा .
मैं घर वालो का आभारी हूँ जिनने खरचा उठालिया इस बचपन को मुद्राओं की मदत से मेरे ऐनी वाले कल को सुधर दिया ज्ञानी और मूर्ख में एक फरक समझा दिया .
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